GP:प्रवचनसार - गाथा 237 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि - आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के अयुगपत्पने को मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता :-
आगमबल से सकल पदार्थों की विस्पष्ट तर्कणा करता हुआ भी यदि जीव सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा को उस प्रकार से प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त आत्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण जो यथोक्त आत्मा का अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा? (नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा ।) और अज्ञानी को ज्ञेयद्योतक होने पर भी, आगम क्या करेगा? (आगम ज्ञेयों का प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानी के लिये क्या कर सकता है?) इसलिये श्रद्धानशून्य आगम से सिद्धि नहीं होती ।
और, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेष की वासना से जनित जो परद्रव्य में भ्रमण उसके कारण जो स्वैरिणी (स्वच्छाचारिणी, व्यभिचारिणी) है ऐसी चिद्वृत्ति (चैतन्य की परिणति) अपने में ही रहने से, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्व में लीन चिद्वृत्ति का अभाव होने से, वह कैसे संयत होगा? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयत को, यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा? इसलिये संयमशून्य श्रद्धान से या ज्ञान से सिद्धि नहीं होती ।
इससे आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के अयुगपत्पना को मोक्षमार्गपने घटित नहीं होता ॥२३७॥