GP:प्रवचनसार - गाथा 239.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[चागो य] अपने शुद्धात्मा को सब ओर से ग्रहण कर बहिरंग-अन्तरंग परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । [अणारंभो] क्रिया रहित अपने शुद्धात्मद्रव्य में ठहरकर मन-वचन-शरीर सम्बन्धी व्यापार (चेष्टा) से निवृत्ति अनारम्भ है । [विसयविरागो] विषयों से रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी सुख की इच्छा का त्याग विषय-विराग है । [खओ कसायाणं] कषाय रहित शुद्धात्मा की भावना के बल से, क्रोधादि कषायों का त्याग कषायक्षय है । [सो संजमो त्ति भणिदो] वह इन गुणों से विशिष्ट 'संयम' - ऐसा कहा गया है । [पव्वज्जाए विसेसेण] प्रथम सामान्य से भी यह संयम का लक्षण है, प्रव्रज्या अर्थात् तपश्चरणरूप दशा में, विशेषरूप से भी यही संयम का लक्षण है । यहाँ अन्दर में शुद्धात्मा की सम्वित्ति-स्वसंवेदन भाव संयम है और बाहर से निवृत्ति द्रव्य संयम है ॥२७४॥