GP:प्रवचनसार - गाथा 23 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, आत्मा का ज्ञान-प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना उद्योत करते हैं :-
'समगुणपर्यायं द्रव्यं (गुण-पर्यायें अर्थात् युगपद् सर्वगुण और पर्यायें ही द्रव्य है)' इस वचन के अनुसार आत्मा ज्ञान से हीनाधिकता-रहित-रूप से परिणमित होने के कारण ज्ञान-प्रमाण है, और ज्ञान १ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, २दाह्य-निष्ठ दहन की भाँति, ज्ञेय प्रमाण है । ज्ञेय तो लोक और अलोक के विभाग से ३विभक्त, ४अनन्त पर्याय-माला से आलिंगित स्वरूप से सूचित (प्रगट, ज्ञान), नाशवान दिखाई देता हुआ भी ध्रुव ऐसा षट्द्रव्य-समूह, अर्थात् सब कुछ है (ज्ञेय छहों द्रव्यों का समूह अर्थात् सब कुछ है) इसलिये निःशेष आवरण के क्षय के समय ही लोक और अलोक के विभाग से विभक्त समस्त वस्तुओं के आकारों के पार को प्राप्त करके इसीप्रकार अच्युत-रूप रहने से ज्ञान सर्वगत है ।
१ज्ञेयनिष्ठ = ज्ञेयों का अवलम्बन करने वाला; ज्ञेयों में तत्पर
२दहन = जलाना; अग्नि
३विभक्त = विभागवाला (षट्द्रव्यों के समूह में लोक-अलोक रूप दो विभाग हैं)
४अनन्त पर्यायें द्रव्य को आलिंगित करती है (द्रव्य में होती हैं) ऐसे स्वरूप-वाला द्रव्य ज्ञात होता है