GP:प्रवचनसार - गाथा 240 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने को साधते हैं; (अर्थात् आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व -- इस त्रिक के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने को सिद्ध करते हैं ) :-
जो पुरुष
- अनेकान्तकेतन आगमज्ञान के बल से, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ, विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान और अनुभव करता हुआ आत्मा में ही नित्य-निश्चल वृत्ति को इच्छता हुआ,
- संयम के साधन-रूप बनाये हुए शरीर-पात्र को पाँच समितियों से अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित करता हुआ, क्रमश: पंचेन्द्रियों के निश्चल निरोध द्वारा जिसके काय-वचन-मन का व्यापार विराम को प्राप्त हुआ है ऐसा होकर,
- चिद्वृत्ति के लिये परद्रव्य में भ्रमण का निमित्त जो कषाय-समूह वह आत्मा के साथ अन्योन्य मिलन के कारण अत्यन्त एक-रूप हो जाने पर भी स्वभाव-भेद के कारण उसे पर-रूप से निश्चित करके आत्मा से ही कुशल मल्ल की भाँति अत्यन्त मर्दन कर-करके अक्रम से उसे मार डालता है,