GP:प्रवचनसार - गाथा 240 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व- इन तीनों की जो सविकल्प युगपतता और उसी प्रकार विकल्प-रहित आत्मज्ञान है- इन दोनों की संभवता--एक साथ उपस्थिति दिखाते हैं --
- [पंचसमिदो] व्यवहार से पाँच समितियों द्वारा समित-संवृत-सम्यक् प्रवृत्ति करने वाले पंचसमित हैं और निश्चय से अपने स्वरूप में अच्छी तरह गत-परिणत-समित हैं ।
- [तिगुत्तो] व्यवहार से मन-वचन-काय तीन के निरोध से त्रिगुप्त हैं, निश्चय से अपने स्वरूप में गुप्त-परिणत-लीन-त्रिगुप्त हैं ।
- [पंचेदियसंवुडो] व्यवहार से पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी विषयों से छूटने के कारण संवृत पचेन्द्रिय-संवृत हैं, निश्चय से अतीन्द्रिय सुख के स्वाद में लीन (होने से) पंचेन्द्रिय-संवृत हैं ।
- [जिदकसाओ] व्यवहार से क्रोधादि कषायों को जीतने से जितकषाय हैं निश्चय से कषाय रहित आत्मा की भावना में लीन जितकषाय हैं ।
- [दंसणणाणसमग्गो] यहाँ दर्शन शब्द से अपने शुद्धात्मा का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, तथा ज्ञान शब्द से स्वसंवेदन ज्ञान ग्रहण करना चाहिये; उन दोनों से समग्र-परिपूर्ण-दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ- व्यवहार से जो बाह्य विषय में व्याख्यान किया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र- तीनों की युगपतता ग्रहण करना चाहिये, तथा अन्तरंग व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान ग्रहण करना चाहिये- इसप्रकार सविकल्प की युगपतता और निर्विकल्प आत्मज्ञान घटित होता है ॥२७५॥