GP:प्रवचनसार - गाथा 241 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब विकल्परूप आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व- इन तीन लक्षणों की युगपतता तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान से सहित जो वे संयत हैं उनका क्या लक्षण है? ऐसा उपदेश देते हैं । ऐसा उपदेश देते हैं- इसका क्या अर्थ है? ऐसा प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर देते हैं- यह इसका अर्थ है । इसप्रकार प्रश्नोत्तररूप पातनिका के प्रसंग में यथासंभव कहीं-कहीं 'इति' शब्द का ऐसा अर्थ जानना चाहिये -
वे श्रमण संयत-तपोधन हैं । जो किस विशेषता वाले हैं? शत्रु-बन्धु, सुख-दुःख, निन्दा- प्रशंसा, लोष्ट (मिट्टी का ढ़ेला)-स्वर्ण, जीवन-मरण में सम-समान मनवाले हैं ।
इससे यह निश्चित हुआ -- शत्रु-बंधु, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, लोष्ट-स्वर्ण, जीवन-मरण, में समताभाव से परिणत अपने शुद्धात्मतत्त्व के सम्यकश्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप विकल्प सहित समाधि-स्वरूपलीनता से, अच्छी तरह उत्पन्न विकार-रहित उत्कृष्ट आह्लाद एक लक्षण सुखामृतरूप परिणति स्वरूप जो परम साम्य है; वही परमागम ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता और उसीप्रकार निर्विकल्प आत्मज्ञानरूप से परिणत मुनिराज का लक्षण जानना चाहिये ॥२७६॥