GP:प्रवचनसार - गाथा 245 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, शुभोपयोग का प्रज्ञापन करते हैं । उसमें (प्रथम), शुभोपयोगियों को श्रमण रूप में गौणतया बतलाते हैं --
जो वास्तव में श्रामण्य-परिणति की प्रतिज्ञा करके भी, कषाय कण के जीवित (विद्यमान) होने से, समस्त परद्रव्य से निवृत्ति-रूप से प्रवर्तमान ऐसी जो सुविशुद्ध-दर्शन-ज्ञान-स्वभाव आत्म-तत्त्व में परिणति-रूप शुद्धोपयोग-भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीव, जो कि शुद्धोपयोग-भूमिका के उपकंठ निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (आतुर) मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जाता हैं --
((धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥)) इस प्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने ११वीं गाथा में) स्वयं ही निरूपण किया है, इसलिये शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ-समवाय है । इसलिये शुभोपयोगी भी, उनके धर्म का सद्भाव होने से, श्रमण हैं । किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होने से निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो कषायकण अविनष्ट होने से सास्रव ही हैं । और ऐसा होने से ही शुद्धोपयोगियों के साथ इन्हें (शुभोपयोगियों को) नहीं लिया (नहीं वर्णन किया) जाता, मात्र पीछे से (गौणरूप में ही) लिया जाता है ॥२४५॥