GP:प्रवचनसार - गाथा 249 - अर्थ
From जैनकोष
[यः अपि ] जो कोई (श्रमण) [नित्यं ] सदा [कायविराधनरहितं ](छह) काय की विराधना से रहित [चातुर्वर्णस्य ] चार प्रकार के [श्रमणसंघस्य ] श्रमण संघ का [उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि ] वह भी [सरागप्रधानः स्यात् ] राग की प्रधानतावाला है ।