GP:प्रवचनसार - गाथा 249 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स] जो हमेशा उपकार करते हैं । किसका उपकार करते हैं? चार प्रकार के मुनिसंघ का उपकार करते हैं । यहाँ 'श्रमण' शब्द से 'श्रमण' शब्द द्वारा वाच्य ऋषि, मुनि, यति, अनगार ग्रहण करना चाहिये ।
- [देशप्रत्यक्षवित्] अवधिज्ञानी एवं मन:पर्ययज्ञानी, केवलभृद्-केवलज्ञानी- ये मुनि हैं,
- ऋद्धि प्राप्त साधु ऋषि हैं,
- दोनों श्रेणी रूप मार्ग पर आरूढ़ यति, तथा
- अन्य साधु समूह अनगार हैं ।
- विक्रिया और अक्षीण शक्ति प्राप्त,
- बुद्धि और औषध ऋद्धि के स्वामी,
- आकाश गमन ऋद्धि के धारी और
- केवलज्ञान-धारी
- ऋद्धि प्राप्त ऋषि हैं, वे राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, परमर्षि के भेद से चार प्रकार के हैं । वहाँ
- विक्रिया और अक्षीण ऋद्धि को प्राप्त राजर्षि हैं । और
- बुद्धि और औषध ऋद्धि से सहित ब्रह्मर्षि हैं ।
- आकाश गमन ऋद्धि सम्पन्न देवर्षि हैं । तथा
- केवली परमर्षि हैं ।
- अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि हैं ।
- श्रेणी के आरोहक उपशमक और क्षपक यति हैं ।
- सामान्य साधु अनगार हैं ।
अथवा श्रमण धर्म के अनुकूल श्रावक आदि चातुर्वर्ण संघ है । इन सबका उपकार जैसा (बनता है वह) कैसे करते हैं? [काय विराधणरहिदं] अपने आप में लीनतारूप भावना स्वरूप, अपने शुद्ध चैतन्य लक्षण निश्चय प्राणों की रक्षा करते हुये, छहकाय के जीवों की विराधना से रहित, जैसा उपकार बनता है, वैसा करते हैं । [सो वि सरागप्पधाणो] वे इसप्रकार के मुनि भी धर्मानुराग रूप आचरण सहित मुनियों में प्रधान-श्रेष्ठ हैं- ऐसा अर्थ है ॥२८८॥