GP:प्रवचनसार - गाथा 254 - अर्थ
From जैनकोष
[एषा] यह [प्रशस्तभूता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमणानां] श्रमणों के (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुन:] और गृहस्थों के तो [परा] मुख्य होती है, [इति भणिता] ऐसा (शास्त्रों में) कहा है; [तया एव] उसी से [परं सौख्य लभते] (परम्परा से) गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है ।