GP:प्रवचनसार - गाथा 256 - अर्थ
From जैनकोष
[छद्मस्थविहितवस्तुषु] जो जीव छद्मस्थविहित वस्तुओं में (छद्मस्थ-अज्ञानी के द्वारा कथित देव-गुरु-धर्मादि में) [व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरत:] व्रत-नियम-अध्ययन-ध्यान-दान में रत होता है वह जीव [अपुनर्भावं] मोक्ष को [न लभते] प्राप्त नहीं होता, (किन्तु) [सातात्मकं भावं] सातात्मक भाव को [लभते] प्राप्त होता है ।