GP:प्रवचनसार - गाथा 258 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसी श्रद्धा करवाते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता :-
प्रथम तो विषयकषाय पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुष भी पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुषों के प्रति अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप ही हैं । इसलिये विषयकषायवान् पुरुष स्वानुरक्त (अपने प्रति अनुराग वाले) पुरुषों को पुण्य का कारण भी नहीं होते, तब फिर वे संसार से निस्तार के कारण तो कैसे हो सकते हैं? (नहीं हो सकते); इसलिये उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता (अर्थात् विषयकषायवान् पुरुषरूप विपरीत कारण का फल अविपरीत नहीं होता) ॥२५८॥