GP:प्रवचनसार - गाथा 263 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[अब्भुट्ठेया] यद्यपि चारित्र गुण से अधिक नहीं हैं या तप से अधिक नहीं हैं, तो भी सम्यग्ज्ञान गुण की अपेक्षा ज्येष्ठ- अधिक होने से श्रुत की विनय के लिये, वे अभ्युत्थेय-अभ्युत्थान के योग्य उठकर सम्मान आदि करने योग्य हैं । वे कौन उसके योग्य हैं ? [समणा] श्रमण-निर्ग्रंन्थ आचार्य उसके योग्य हैं । वे निर्ग्रन्थ आचार्य किस विशेषता वाले हैं ? [सुत्तत्थविसारदा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी परमात्मतत्त्व प्रभृति अनेकान्तात्मक पदार्थों में वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से प्रमाण-नय-निक्षेपों द्वारा विचार करने में चतुर चित्तवाले, सूत्रार्थ विशारद हैं । वे केवल अभ्युत्थान के ही योग्य नहीं हैं, वरन् [उवासेया] परम चैतन्य ज्योति परमात्मपदार्थ के परिज्ञान के लिये उपासना करने योग्य हैं- परम भक्ति से सेवा करने योग्य हैं । [संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि] वास्तव में वे संयम-तप-ज्ञान से समृद्ध श्रमण वन्दना करने योग्य हैं ।
- बाह्य में इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम के बल से, अन्दर अपने शुद्धात्मा में यत्नपरता संयम है ।
- बाह्य में अनशन आदि तप के बल से और अन्दर में परद्रव्य की इच्छा के निरोध से, अपने स्वरूप में प्रतपन-विजयन तप है ।
- बाह्य में परमागम के अभ्यास से, अन्दर में स्वसंवेदन ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
यहाँ तात्पर्य यह है जो बहु-श्रुत होने पर भी चारित्र में अधिक नहीं हैं वे भी परमागम का अभ्यास करने के हेतु से, यथायोग्य वन्दना के योग्य हैं । उनके प्रति वन्दना करने का और भी कारण है -- वे सम्यक्त्व और ज्ञान में पहले से ही दृढ़तर हैं परन्तु इन नवीन मुनियों के सम्यक्त्व और ज्ञान में दृढ़ता नहीं है । तब फिर थोड़े चारित्र वालों के प्रति आगम में वन्दना आदि का निषेध किसलिये किया गया है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं- अतिप्रसंग (सीमा के उल्लंघन) का निषेध करने के लिये आगम में इसका निषेध किया है ॥३०१॥