GP:प्रवचनसार - गाथा 265 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[अववददि] बुरा बोलता है-दोष देता है-अपवाद करता है । वह कौन दोष देता है ? [जो हि] कर्ता रूप जो वास्तव में । किन्हें दोष देता है? [समणं] श्रमण-मुनि को दोष देता है । कैसे श्रमण को दोष देता है? [सासणत्थं] शासनस्थ-निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित श्रमण को दोष देता है । उन्हें क्यों दोष देता है? [पदोसदो] दोष रहित परमात्मा की भावना से विलक्षण, प्रद्वेष-कषाय से दोष देता है । पहले क्या कर दोष देता है? [दिट्ठा] उन्हें देखकर दोष देता है । मात्र दोष ही नहीं देता है, वरन् [णाणुमण्णदि] उन्हें स्वीकार भी नहीं करता है । किन विषयों में उन्हें स्वीकार नहीं करता है? [किरियासु] यथायोग्य वन्दना आदि क्रियाओं में उन्हें स्वीकार नहीं करता है । [हवदि हि सो] वह स्पष्ट रूप से होता है । वह किस विशेषतावाला होता है? [ण्ट्ठचारित्तो] कथंचित् अति प्रसंग से, नष्टचारित्र होता है (अपने चारित्र को नष्ट करता है) ।
वह इसप्रकार- रत्नत्रयरूप मार्ग में स्थित मुनि को देखकर, यदि कथंचित् मात्सर्यवश (ईर्ष्यावश) दोष ग्रहण करता है, तो स्पष्ट चारित्र से भ्रष्ट होता है, बाद में आत्मनिन्दा करके यदि निवृत्त हो जाता है- ईर्ष्यावश अपवाद करना छोड़ देता है, तो दोष नहीं है; यदि कुछ समय बाद छोड़ता है, तो भी दोष नहीं है । तथा यदि वहाँ ही अनुबन्ध कर, तीव्र कषाय के कारण अतिप्रसंग करता है (बार-बार वही करता है), तो चारित्र से भ्रष्ट होता है ।
यहाँ भाव यह है- बहुश्रुतों को, अल्पश्रुत मुनियों का दोष-ग्रहण नहीं करना चाहिये, उन मुनियों को भी कुछ भी पाठ मात्र ग्रहण कर, उनका दोष-ग्रहण नहीं करना चाहिये, किन्तु कुछ भी सारपद ग्रहण कर अपनी भावना ही करना चाहिये । परस्पर दोष-ग्रहण क्यों नहीं करना चाहिये । राग-द्वेष की उत्पत्ति होने पर बहुश्रुतों को श्रुत का फल नहीं है, तथा तपस्वियों को तप का फल नहीं है; अत: परस्पर दोष -ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥३०४॥