GP:प्रवचनसार - गाथा 266 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[सो होदि अणंतसंसारी] वह कथंचित् अनन्त संसारी होता है । जो क्या करता है ? [पडिच्छगो जो दु] जो चाहने वाला है, अभिलाषक है-अपेक्षक है । क्या चाहने वाला है ? [विणयं] वन्दना आदि विनय चाहने वाला है । किससे विनय चाहने वाला है ? [गुणदोधिगस्स] बहिरंग-अन्तरंग-रत्नत्रयरूप गुणों से अधिक दूसरे मुनि से विनय चाहता है । किस कारण वह अपनी विनय कराना चाहता है ? [होमि समणो त्ति] मै भी मुनि हूँ- इस अभिमान-गर्व से विनय चाहता है । यदि कैसा है, तो भी विनय चाहता है ? [होज्जं गुणाधरो जदि] यदि स्वयं निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों से हीन है, तो भी उनसे विनय चाहता है, तो अनन्त संसारी होता है ।
यहाँ अर्थ यह है -- यदि पहले अभिमान के कारण, अधिक गुणवालों से विनय की इच्छा करता है, परन्तु बाद मे विवेक बल से आत्म-निन्दा करता है, तो अनन्त संसारी नहीं होता है । परन्तु वहाँ ही मिथ्या अभिमान से प्रसिद्धि पूजा-लाभ के लिये दुराग्रह करता है, तो वैसा (अनन्त संसरी) होता है । अथवा यदि कुछ समय बाद भी आत्मनिंदा करता है, तो भी वैसा (अनन्त संसारी) नहीं होता है ॥३०५॥