GP:प्रवचनसार - गाथा 268 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब लौकिक संसर्ग का निषेध करते है -
[णिच्छिदसुत्त्त्थपदो] जिसके द्वारा अनेकान्त स्वभावी अपने शुद्धात्मा आदि पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाले सूत्र-अर्थ-पद निश्चितरूप से जाने गये है- निर्णय किये गये हैं वे निश्चित सूत्रार्थपद हैं [समिदकसाओ] दूसरे विषय में क्रोधादि के त्याग से अन्तरंग में उपशम भाव से परिणत अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से कषायों का शमन करनेवाले हैं, [तवोधिगो चावि] अनशन आदि बाह्य तप के बल से और उसीप्रकार अन्तरंग में शुद्धात्म-तत्व की भावना के विषय में प्रतपन और विजयन से, जो तप में अधिक होते हुये भी स्वयं मुनि रूप कर्ता [लोगिगजणसंग्गं ण चयदि जदि] लौकिक अर्थात् स्वेच्छाचारी उनका संसर्ग-लौकिक संसर्ग है (षष्ठी तत्पुरुष समास किया), उसे यदि नहीं छोड़ता है, [संजदो ण हवदि] तब (वह) संयत-मुनि नहीं है ।
यहाँ अर्थ यह है- स्वयं आत्मा की भावना करनेवाला होने पर भी, यदि असंवृत-असंयमी जनों का संसर्ग नहीं छोड़ता है, तो अग्नि की संगति में रहनेवाले जल के समान, अतिपरिचय से विकृति भाव (रागादि भाव) को प्राप्त होता है ॥२८०॥