GP:प्रवचनसार - गाथा 26 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब जैसे पहले (२४ वीं गाथा में) ज्ञान को सर्वगत कहा था, उसीप्रकार सर्वगत ज्ञान की अपेक्षा भगवान भी सर्वगत हैं यह ज्ञान कराते हैं -
[सव्वगदो] सर्वगत हैं । कर्तारूप वे सर्वगत कौन हैं? [जिणवसहो] - सर्वज्ञ सर्वगत हैं । सर्वज्ञ सर्वगत क्यों हैं? [जिणो णाणमयादो य] - सर्वज्ञ-जिन ज्ञानमय होने के कारण सर्वगत हैं । [सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा] - और वे जगत् के सभी पदार्थ, दर्पण में बिम्ब के समान, व्यवहार से उन भगवान में गये हैं । वे पदार्थ भगवान में गये हैं, यह कैसे जाना? [ते भणिया] - वे पदार्थ वहाँ गये हैं - ऐसा कहा गया है । [विषयादो] - ज्ञान के विषय - ज्ञेय होने से वे पदार्थ भगवान में गये हैं - ऐसा कहा गया है । किसके ज्ञेय होने से वे गये हुये कहे गये हैं? [तस्स] - भगवान के ज्ञेय होने से वे भगवान में गये हुये कहे गये हैं ।
वह इसप्रकार - जो अनन्तज्ञान और अनाकुलता लक्षण अनन्तसुख का आधार है वह आत्मा है ।
ऐसा होने से आत्मप्रमाण ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है । ऐसे अपने स्वरूप को तथा शरीर में रहने रूप स्थिति को नहीं छोड़ते हुये ही वे सर्वज्ञ लोकालोक को जानते हैं । इसलिये व्यवहार से भगवान सर्वगत कहे गये हैं । और दर्पण में बिम्ब के समान क्योंकि नीले, पीले आदि बाह्य पदार्थ जानकारी-रूप से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं (झलकते है), इसलिये पदार्थों के कार्यभूत पदार्थाकार भी पदार्थ कहलाते हैं और वे ज्ञान में स्थित हैं - ऐसे कथन में दोष नही है - यह अभिप्राय है ।