GP:प्रवचनसार - गाथा 270 - अर्थ
From जैनकोष
[तस्मात्] (लौकिकजन के संग से संयत भी असंयत होता है) इसलिये [यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] दुःख से परिमुक्त होना चाहता हो तो वह [गुणात्समं] समान गुणों वाले श्रमण के [वा] अथवा [गुणै: अधिकं श्रमणं तत्र] अधिक गुणों वाले श्रमण के संग में [नित्यम्] सदा [अधिवसतु] निवास करो ।