GP:प्रवचनसार - गाथा 271 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जे अजधागहिदत्था] वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत, निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप भाव की जानकारी का अभाव होने से, जो पदार्थों को अन्यथा ग्रहण करनेवाले - विपरीत ग्रहण करनेवाले हैं । और जो कैसे हैं? [एदे तच्च त्ति णिच्छिदा] ये तत्व हैं -ऐसा निश्चय करनेवाले हैं ये जो मेरे द्वारा कल्पित पदार्थ हैं वे ही तत्त्व हैं - ऐसा निश्चय करनेवाले हैं । कहाँ स्थित होकर ऐसा निश्चित करनेवाले हैं? [समये] निर्ग्रन्थ रूप द्रव्यसमय में स्थित होकर ऐसा निश्चय करने वाले हैं । [अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं काल] वे अत्यन्त फलसमृद्ध हो, अनन्त काल तक घूमते हैं । द्रव्य- क्षेत्र- काल- भव- भाव रूप पाँच प्रकार के संसार परिभमण से रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से च्युत - भ्रष्ट होते हुये घूमते हैं । कब तक घूमते हैं ? परकाल- अनन्तकाल तक घूमते हैं । कैसे घूमते हैं? नारक आदि दुःखरूप अत्यन्त फलसमृद्ध होते हुये, घूमते हैं । और कैसे (कब तक) घूमते हैं? इस वर्तमानकाल से आगे भविष्य तक घूमते हैं ।
यहाँ अर्थ यह है- इसप्रकार संसार परिभ्रमणरूप परिणत पुरुष ही, अभेदरूप से संसारस्वरूप जानना चाहिये ॥३०७॥