GP:प्रवचनसार - गाथा 273 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[सम्मं विदिदपदत्था] संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित, अनन्त ज्ञानादि स्वभाव (वाले) अपने परमात्मपदार्थ प्रभृति सम्पूर्ण वस्तुओं का विचार करने में चतुर चित्त की चतुरता से, प्रकाशमान अतिशय सहित उत्कृष्ट विवेक ज्योति द्वारा, अच्छी तरह से पदार्थों को जानने वाले हैं । और वे किस रूप हैं ? [विसयेसु णावसत्ता] पंचेन्द्रिय विषयों की अधीनता से रहित होने के कारण, अपने आत्म तत्त्व की भावना रूप परम समाधि (स्वरूपलीनता) से उत्पन्न, परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत रस के आस्वाद रूप अनुभव के बल से, विषयों में किंचित मात्र भी आसक्त नहीं हैं । क्या करके आसक्त नहीं हैं ? पहले अपने स्वरूप को परिग्रह-स्वीकार कर फिर चत्ता- छोड़कर आसक्त नहीं हैं । किसे छोड़कर वैसे नहीं हैं ? [उवहिं] परिग्रह छोड़कर वैसे नहीं है । किस विशेषता वाले परिग्रह को छोड़कर वैसे नहीं हैं? [बहित्थमज्झत्थं] बाहर स्थित खेत, मकान आदि अनेक प्रकार के और अपने अन्दर स्थित मिथ्यात्व आदि चौदह प्रकार से भेदरूप परिग्रह छोड़कर आसक्त नहीं हैं । [जे] इन गुणों से विशिष्ट जो महात्मा हैं, [ते सुद्धा त्ति णिद्दिट्ठा] वे शुद्ध-शुद्धोपयोगी हैं - ऐसा कहा है ।
इस विशेष कथन से क्या कहा गया है? इसप्रकार के परमयोगी ही, अभेदरूप से मोक्षमार्ग हैं- ऐसा जानना चाहिये ॥३०९॥