GP:प्रवचनसार - गाथा 274 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[भणियं] कहा है । क्या कहा है? [सामण्णं] सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - एकाग्रता लक्षण, शत्रु-मित्र आदि में समभाव परिणतिरूप, साक्षात् मोक्ष का कारण जो श्रामण्य कहा है । वह किसके होता है? [सुद्धस्स य] और शुद्ध के- शुद्धोपयोगी के ही होता है । [सुद्धस्स दंसणं णाणं] तीन लोक के उदररूपी छिद्र में स्थित, तीन काल सम्बन्धी विषयों-सम्पूर्ण वस्तुओं में पाये जाने वाले अनन्त धर्मों को, एक समय में सामान्य-विशेष रूप से देखने जानने में समर्थ जो दर्शन-ज्ञान, दोनों उन शुद्ध के ही होते हैं ।
[सुद्धस्स य णिव्वाणं] अव्याबाध अनन्त सुख आदि गुणों के आधारभूत, पराधीनता से रहित होने के कारण अपने अधीन जो निर्वाण-मोक्ष- वह शुद्ध के ही होता है । [सो च्चिय सिद्धो] जो लौकिक माया, अंजन रस, दिग्विजय, मन्त्र, यन्त्र आदि सिद्धियों से विलक्षण, अपने शुद्धात्मा की पूर्ण प्राप्ति लक्षण टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी, ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से रहित होने के कारण सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गर्भित अनन्त गुण सहित सिद्ध भगवान हैं, वे भी शुद्ध ही हैं । [णमो तस्स] उन्हें ही अपने दोष रहित परमात्मा में आराध्य-आराधक सम्बन्ध लक्षण भाव नमस्कार हो ।
यहाँ यह कहा गया है -- इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के माध्यम से, सम्पूर्ण इष्ट मनोहर प्राप्त होते हैं - ऐसा मानकर, शेष मनोरथों को छोड़, उसमें ही भावना करना चाहिये ॥३१०॥