GP:प्रवचनसार - गाथा 27 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार करते हैं :-
क्योंकि शेष समस्त चेतन तथा अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय सम्बन्ध (अभिन्न-प्रदेशरूप सम्बन्ध; तादात्म्य सम्बन्ध) नहीं है, इसलिये जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभाव-सिद्ध समवाय-सम्बन्ध है ऐसे एक आत्मा का अति निकटतया [अभिन्न प्रदेश-रूप से] अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से ज्ञान आत्मा के बिना अपना अस्तित्व नहीं रख सकता; इसलिये ज्ञान आत्मा ही है । और आत्मा तो अनन्त धर्मों का अधिष्ठान (आधार) होने से ज्ञान-धर्म के द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्म के द्वारा अन्य भी है ।
और फिर, इसके अतिरिक्त (विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है । यदि यह माना जाय कि एकान्त से ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञानगुण आत्मद्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, (और ज्ञान-गुण का अभाव होने से) आत्मा के अचेतनता आ जायेगी अथवा विशेष-गुण का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा । यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो, (आत्म-द्रव्य एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने पर ज्ञानका कोई आधार-भूत द्रव्य नहीं रहने से) निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जायेगा अथवा (आत्मद्रव्य के एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने से) आत्मा की शेष पर्यायों का (सुख, वीर्यादि गुणों का) अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अविनाभावी सम्बन्ध वाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा । (क्योंकि सुख, वीर्य इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता)