GP:प्रवचनसार - गाथा 28 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब ज्ञान और ज्ञेय का परस्पर गमन-निराकरण प्रतिपादक (एक दूसरे में जाने के निषेध परक) पाँच गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल आरम्भ होता है ।
अब ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता; यह निश्चित करते हैं -
[णाणी णाणसहावो] - ज्ञानी सर्वज्ञ केवलज्ञान स्वभावी ही हैं । [अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स] - तीनलोक, तीनकालवर्ती पदार्थ ज्ञेयस्वरूप ही हैं, ज्ञानस्वरूप नहीं हैं । वे सभी पदार्थ किसके ज्ञेय स्वरूप हैं? वे ज्ञानी के ज्ञेय स्वरूप हैं । [रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टन्ति] - ज्ञानी और पदार्थ परस्पर में एकपने से प्रवृत्ति नहीं करते । ज्ञानी और पदार्थ किसके समान, किससे सम्बन्धित परस्पर में प्रवृत्ति नहीं करते? जैसे नेत्र और रूप परस्पर में प्रवृत्ति नहीं करते, उसीप्रकार वे दोनों आपस में प्रवृत्ति नहीं करते हैं ।
वह इसप्रकार - जैसे रूपी द्रव्य नेत्र के साथ परस्पर में सम्बन्ध का अभाव होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं और नेत्र भी उनके आकार को ग्रहण करने में समर्थ हैं, उसी प्रकार तीनलोक रूपी उदरविवर (छिद्र) में स्थित, तीनकाल सम्बन्धी पर्यायों से परिणमित पदार्थ, ज्ञान के साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध नहीं होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं; अखण्ड एक प्रतिभासमय केवलज्ञान भी उनके आकारों को ग्रहण करने में समर्थ है - यह भाव है ।