GP:प्रवचनसार - गाथा 29 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, आत्मा पदार्थों में प्रवृत्त नहीं होता तथापि जिससे (जिस शक्ति-वैचित्र्य से) उसका पदार्थों में प्रवृत्त होना सिद्ध होता है उस शक्तिवैचित्र्य को उद्योत करते हैं :-
जिस प्रकार चक्षु रूपी द्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा ज्ञेय आकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता-देखता है; इसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतता के कारण *प्राप्यकारिता की विचारगोचरता से दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिये अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा शक्ति वैचित्र के कारण वस्तु में वर्तते समस्त ज्ञेयाकारों को मानों मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लेने से अप्रविष्ट न रहकर जानता- देखता है । इसप्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्माके पदार्थोंमें अप्रवेश की भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है ।
*प्राप्यकारिता = ज्ञेय विषयों को स्पर्श करके ही कार्य कर सकना-जान सकना । (इन्द्रियातीत हुए आत्मामें प्राप्यकारिता के विचार का भी अवकाश नहीं है)