GP:प्रवचनसार - गाथा 2 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
तत्पश्चात जो विशुद्ध सत्तावान् होने से ताप से उत्तीर्ण हुए (अन्तिम ताव दिये हुए अग्नि में से बाहर निकले हुए) उत्तम सुवर्ण के समान शुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभाव को प्राप्त हुए हैं, ऐसे शेष *अतीत तीर्थंकरों को और सर्व सिद्धों को तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार युक्त होने से जिन्होंने परम शुद्ध उपयोग भूमिका को प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणों को-- जो कि आचार्यत्व, उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषों से विशिष्ट (भेदयुक्त) हैं उन्हें -- नमस्कार करता हूँ ॥२॥
<sup*अतीत = गत, हो गये, भूतकालीन