GP:प्रवचनसार - गाथा 35 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता, ऐसा उपदेश देते हैं -
[जो जाणदि सो णाणं] - कर्तारूप (जानने की क्रिया करनेवाला) जो जानता है वह ज्ञान है । वह इसप्रकार - जैसे नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद होने पर भी अभेदनय से जलाने की क्रिया करने में समर्थ उष्णगुण से परिणत अग्नि भी उष्ण कहलाती है, उसी प्रकार पदार्थों को जानने सम्बन्धी क्रिया करने में समर्थ ज्ञान गुण से परिणत आत्मा भी ज्ञान कहलाता है ।
वैसे ही कहा है - "[जानातीति ज्ञानमात्मा] - जो जानता है वह ज्ञान-आत्मा है । [ण हवदि णाणेण जाणगो आदा] - आत्मा सर्वथा ही भिन्न ज्ञान से ज्ञानी नहीं है । यहाँ कोई कहता है - जैसे देवदत्त स्वयं से भिन्न दात्र (हंसिया) से लावक (काटने-छेदने वाला) है, उसीप्रकार आत्मा भी भिन्न ज्ञान से ज्ञायक हो, क्या दोष है? आचार्य कहते हैं - ऐसा नहीं है । छेदन क्रिया के विषय में बहिरंग साधनरूप दात्र देवदत्त से भिन्न (भले ही) हो, परन्तु छेदन क्रिया के विषय में अंतरंग साधनरूप देवदत्त की शक्ति विशेष उससे अभिन्न ही है; उसी प्रकार पदार्थों की जानकारी के विषय में अंतरंग साधनरूप ज्ञान आत्मा से अभिन्न ही है, बहिरंग साधनरूप उपाध्याय-अध्यापक, प्रकाश आदि आत्मा से भिन्न भी हों, दोष नहीं है । और यदि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी है तो दूसरे के ज्ञान से घड़े, खम्भे आदि सभी जड़ पदार्थ भी ज्ञानी हो जावें, परन्तु वे ज्ञानी नहीं होते ।
[णाणं परिणमदि सयं] - क्योंकि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं है, इसलिये घट की उत्पत्ति में मिट्टी के पिण्ड समान उपादान रूप से स्वयं जीव ही ज्ञानरूप परिणमन करता है । [अट्ठा णाणट्ठियो सव्वे] - दर्पण में झलकने वाले बिम्ब के समान व्यवहार से ज्ञेय पदार्थ जानकारी रूप से ज्ञान में स्थित हैं - यह अभिप्राय है ।