GP:प्रवचनसार - गाथा 37 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसा उद्योत करते हैं कि द्रव्यों की अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिकपर्यायों की भाँति पृथक्रूप से ज्ञान में वर्तती हैं :-
(जीवादिक) समस्त द्रव्य-जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से (वे तीनो-काल में उत्पन्न हुआ करती हैं इसलिये), उनकी (उन समस्त द्रव्य-जातियों की), क्रम-पूर्वक तपती हुई स्वरूप-सम्पदा वाली (एक के बाद दूसरी प्रगट होने वाली), विद्यमानता और अविद्यमानता को प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब तात्कालिक (वर्तमान-कालीन) पर्यायों की भाँति, अत्यन्त १मिश्रित होने पर भी सब पर्यायों के विशिष्ट लक्षण स्पष्ट ज्ञात हों इस प्रकार, एक क्षण में ही, ज्ञान-मंदिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं । यह (तीनों काल की पर्यायों का वर्तमान पर्यायों की भाँति ज्ञान में ज्ञात होना) अयुक्त नहीं है; क्योंकि
- उसका दृष्टान्त के साथ (जगत में जो दिखाई देता है-अनुभव में आता है उसके साथ) अविरोध है । (जगत में) दिखाई देता है कि छद्मस्थ के भी, जैसे वर्तमान वस्तु का चिंतवन करते हुए ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है उसी प्रकार भूत और भविष्यत वस्तु का चितवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है ।
- और ज्ञान चित्रपट के समान है । जैसे चित्रपट में अतीत, अनागत और वर्तमान वस्तुओं के २आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं; उसीप्रकार ज्ञान-रूपी भित्ति में (ज्ञान-भूमिका में, ज्ञान-पट में) भी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं ।
- और सर्व ज्ञेयाकारों की तात्कालिकता (वर्तमानता, साम्प्रतिकता) अविरुद्ध है । जैसे नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं, उसीप्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं ॥३७॥
१ज्ञान में समस्त द्रव्यों की तीनों-काल की पर्यायें एक ही साथ ज्ञात होने पर भी प्रत्येक पर्याय का विशिष्ट स्वरूप-प्रदेश, काल, आकार इत्यादि विशेषतायें-स्पष्ट ज्ञात होता है; संकर-व्यतिकर नहीं होते
२आलेख्य = आलेखन योग्य; चित्रित करने योग्य