GP:प्रवचनसार - गाथा 37 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
(अब वर्तमान ज्ञान तीन काल को जानता है, इस तथ्य का प्रतिपादक पाँच गाथाओं में निबद्ध पाँचवां स्थल प्रारम्भ होता है)
अब, भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं; ऐसा निरूपण करते हैं -
[सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया] - जो सभी विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें हैं, [हि] - वास्तव में, [वट्टन्ते ते] - वे पूर्वोक्त सभी पर्यायें वर्तती हैं, प्रतिभासित होती हैं, ज्ञात होती हैं । विद्यमान-अविद्यमान वे सभी पर्यायें कहाँ वर्तती हैं? [णाणे]- वे सभी पर्यायें केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किसके समान केवलज्ञान में वर्तती हैं? [तक्कालिगेव] - वे वर्तमान पर्यायों के समान केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किनसे सम्बन्धित--किनकी हैं? [तासिं दव्वजादीणं] - उन प्रसिद्ध शुद्ध जीवद्रव्य आदि द्रव्य-जातियों--समूहों की वे पर्यायें हैं । केवलज्ञान में एक साथ वर्तते हुये भी वे सभी पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं । युगपत् वर्तती हुई वे पर्यायें सम्बन्ध रहित कैसे हैं? [विसेसदो] - अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार रूप विशेषों के द्वारा संकर, व्यतिकर दोषों के निराकरण रूप रहने के कारण वे सर्व पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं - यह अर्थ है ।
विशेष यह है कि जैसे मन में विचार करते हुये छद्मस्थ पुरुष के भूत-भावि पर्यायें स्फुरायमान होती हैं, और जैसे चित्र-दीवाल पर (दीवाल पर बने हुये चित्रों में) बाहुबली-भरत आदि भूतकालीन रूप और श्रेणिक-तीर्थंकर आदि भावि रूप वर्तमान के समान प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसीप्रकार चित्र-दीवाल के स्थानीय (समान) केवलज्ञान में भूत-भावि पर्यायें एक साथ प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, एक साथ दिखाई देने में कुछ भी विरोध नही है ।
जैसे ये केवली भगवान परद्रव्य-पर्यायों को जानकारी मात्र से जानते हैं, तन्मयरूप से नहीं, निश्चय से केवलज्ञानादि गुणों की आधारभूत अपनी सिद्ध-पर्याय को ही केवली-भगवान स्वसंवित्ति आकार से तन्मय होकर जानते हैं; उसीप्रकार आसन्न-भव्य जीव को भी निज शुद्धात्मा के सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय पर्याय ही सर्व प्रयोजन से जानने योग्य है - यह तात्पर्य है ।