GP:प्रवचनसार - गाथा 38 - अर्थ
From जैनकोष
[ये पर्याया:] जो पर्यायें [हि] वास्तव में [न एव संजाता:] उत्पन्न नहीं हुई हैं, तथा [ये] जो पर्यायें [खलु] वास्तव में [भूत्वा नष्टा:] उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं, [ते] वे [असद्भूता: पर्याया:] अविद्यमान पर्यायें [ज्ञानप्रत्यक्षा: भवन्ति] ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥३८॥