GP:प्रवचनसार - गाथा 38 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया] - जो आज तक उत्पन्न नहीं हुई हैं, अर्थात् भविष्य-कालीन पर्यायें और वास्तव में नष्ट हुई पर्यायें । वे पर्यायें क्या करके नष्ट हुई हैं ? उत्पन्न हो कर वे पर्यायें नष्ट हुई हैं । [ते होंति असब्भूदा पज्जाया] - वे पूर्वोक्त भूत-भावि पर्यायें विद्यमान नहीं होने से असद्भूत कही जाती हैं । [णाणपच्चक्खा] - विद्यमान नहीं होने से वे असद्भूत हैं तो भी वर्तमान ज्ञान की विषय होने के कारण व्यवहार से भूतार्थ कही जाती हैं, और उसीप्रकार वे ज्ञान प्रत्यक्ष भी होती हैं ।
जैसे ये भगवान निश्चय से परमानन्द एक लक्षण सुख स्वभावमय मोक्ष-पर्याय को ही तन्मयतापूर्वक जानते हैं परद्रव्य-पर्यायों को तो व्यवहार से जानते हैं; उसीप्रकार आत्मा की भावना करने वाले पुरुष के द्वारा रागादि विकल्पों की उपाधि रहित स्वसंवेदन पर्याय ही प्रधानता से जानने योग्य है, बाह्य द्रव्य और पर्यायें तो गौणरूप से हैं - यह भाव है ।