GP:प्रवचनसार - गाथा 41 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसा स्पष्ट करते हैं कि अतीन्द्रिय-ज्ञान के लिये जो जो कहा जाता है वह (सब) संभव है :-
इन्द्रिय-ज्ञान उपदेश, अन्तःकरण और इन्द्रिय इत्यादि को १विरूप-कारणता से (ग्रहण करके) और २उपलब्धि (क्षयोपशम), ३संस्कार इत्यादिको अंतरंग स्वरूप-कारणता से ग्रहण करके प्रवृत्त होता है; और वह प्रवृत्त होता हुआ सप्रदेश को ही जानता है क्योंकि वह स्थूल को जाननेवाला है, अप्रदेश को नहीं जानता, (क्योंकि वह सूक्ष्म को जाननेवाला नहीं है); वह मूर्त को ही जानता है क्योंकि वैसे (मूर्तिक) विषय के साथ उसका सम्बन्ध है, वह अमूर्त को नहीं जानता (क्योंकि अमूर्तिक विषय के साथ इन्द्रियज्ञान का सम्बन्ध नहीं है); वह वर्तमान को ही जानता है, क्योंकि विषय-विषयी के सन्निपात सद्भाव है, वह प्रवर्तित हो चुकनेवाले को और भविष्य में प्रवृत्त होनेवाले को नहीं जानता (क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष का अभाव है) ।
परन्तु जो अनावरण अतीन्द्रिय ज्ञान है उसे अपने अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त और अमूर्त (पदार्थ मात्र) तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्यायमात्र, ज्ञेयता का अतिक्रमण न करने से ज्ञेय ही है-जैसे प्रज्वलित अग्नि को अनेक प्रकार का ईंधन, दाह्यता का अतिक्रमण न करने से दाह्य ही है । (जैसे प्रदीप्त अग्नि दाह्यमात्र को-ईंधनमात्र को - जला देती है, उसीप्रकार निरावरण ज्ञान ज्ञेयमात्र को - द्रव्य-पर्याय मात्र को - जानता है)
१विरूप = ज्ञान के स्वरूप से भिन्न स्वरूपवाले । (उपदेश, मन और इन्द्रियाँ पौद्गलिक होने से उनका रूप ज्ञान के स्वरूप से भिन्न है । वे इन्द्रियज्ञान में बहिरंग कारण हैं)
२उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से पदार्थों को जानने की शक्ति (यह 'लब्ध' शक्ति जब 'उपयुक्त' होती हैं तभी पदार्थ जानने में आते है)
३संस्कार = भूतकाल में जाने हुये पदार्थों की धारणा ।