GP:प्रवचनसार - गाथा 44 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य] स्थान--ऊपर स्थिति--खड़ा होना, [निषद्या] आसन--बैठना, श्रीविहार और धर्मोपदेश [णियदयो] ये क्रियायें स्वाभाविक--बिना इच्छा के होती हैं । ये क्रियायें स्वाभाविक किनके होती है ? [तेसिं अरहंताणं] उन अरहन्त निर्दोषी परमात्मा के ये क्रियायें स्वाभाविक होती हैं । उनके ये कब होती हैं ? [काले] अरहन्त अवस्था में उनके ये होती हैं । उनके ये क्रियायें किसके समान होती हैं? [मायाचारो व्व ड़त्थीणं] स्त्रियों के मायाचार के समान उनके ये क्रियायें होती हैं ।
वह इसप्रकार - जैसे स्त्रीवेद के उदय का सद्भाव होने से स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी मायाचार होता है, उसी प्रकार शुद्धात्म-तत्व के विरोधी मोह के उदय में होने वाले इच्छा पूर्वक प्रयत्न-रूप कार्य का अभाव होने पर भी भगवान के श्रीविहारादि होते हैं । अथवा बादलों के ठहरने, गमन करने, गरजने, पानी बरसाने आदि के समान भगवान के ये क्रियायें सहज होती हैं ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि मोहादि का अभाव होने पर क्रिया विशेष भी बंध का कारण नहीं है ।