GP:प्रवचनसार - गाथा 45 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
इसप्रकार होने से तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकिंचित्कर ही है (कुछ करता नहीं है, स्वभाव का किंचित् घात नहीं करता) ऐसा अब निश्चित करते हैं :-
अरहन्त भगवान जिनके वास्तव में पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भली-भाँति परिपक्व हुए हैं ऐसे ही हैं, और उनकी जो भी क्रिया है वह सब उसके (पुण्य के) उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही है । किन्तु ऐसी (पुण्य के उदय से होनेवाली) होने पर भी वह सदा औदयिकी क्रिया महा-मोहराजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होती है इसलिये मोह-राग-द्वेष रूपी *उपरंजकों का अभाव होने से चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती इसलिये कार्यभूत बन्ध की अकारणभूतता से और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूतता से क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये? (अवश्य माननी चाहिये) और जब क्षायिकी ही माने तब कर्मविपाक (कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तों के) स्वभाव-विघात का कारण नहीं होता (ऐसे निश्चित होता है) ॥४५॥
*उपरंजकों = उपराग-मलिनता करनेवाले (विकारीभाव)