GP:प्रवचनसार - गाथा 48 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता :-
इस विश्व में एक आकाश-द्रव्य, एक धर्म-द्रव्य, एक अधर्म-द्रव्य, असंख्य काल-द्रव्य और अनन्त जीव-द्रव्य तथा उनसे भी अनन्तगुने पुद्गल द्रव्य हैं, और उन्हीं के प्रत्येक के अतीत, अनागत और वर्तमान ऐसे (तीन) प्रकारों से भेद वाली १निरवधि २वृत्ति-प्रवाह के भीतर पड़ने वाली (समा जाने वाली) अनन्त पर्यायें हैं । इस प्रकार यह समस्त (द्रव्यों और पर्यायों का) समुदाय ज्ञेय है । उसी में एक कोई भी जीव-द्रव्य ज्ञाता है । अब यहाँ, जैसे समस्त दाह्य को दहकती हुई अग्नि समस्त-दाह्यहेतुक (समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसा) समस्त दाह्याकार-पर्यायरूप परिणमित सकल एक ३दहन जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे अपने रूप में (अग्नि रूप में) परिणमित होती है, वैसे ही समस्त ज्ञेयों को जानता हुआ ज्ञाता (आत्मा) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित ४सकल एक ज्ञान जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे निजरूपसे-जो चेतनता के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष है उस-रूप-परिणमित होता है । इस प्रकार वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है । किन्तु जो समस्त ज्ञेय को नहीं जानता वह (आत्मा), जैसे समस्त दाह्य को न दहती हुई अग्नि समस्त-दाह्यहेतुक समस्त-दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार है ऐसे अपने रूप में परिणमित नहीं होता उसीप्रकार समस्त-ज्ञेयहेतुक समस्त-ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे अपने रूपमें-स्वयं चेतना के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष होने पर भी परिणमित नहीं होता, (अपने को परिपूर्ण-तया अनुभव नहीं करता-नहीं जानता) इस प्रकार यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता वह अपने को (आत्मा को) नहीं जानता ॥४८॥
१निरवधि = अवधि-हद-मर्यादा अन्तरहित
२वृत्ति = वर्तन करना; उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य; अस्तित्व, परिणति
३दहन = जलाना, दहना
४सकल = सारा; परिपूर्ण