GP:प्रवचनसार - गाथा 49 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता :-
प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने से ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है; और ज्ञान प्रत्येक आत्मा में वर्तता (रहता) हुआ प्रतिभासमय महा-सामान्य है । वह प्रतिभासमय महा-सामान्य प्रतिभास-मय अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाला है; और उन विशेषों के (भेदों के) निमित्त सर्व द्रव्य-पर्याय हैं । अब जो पुरुष सर्व द्रव्य-पर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाले प्रतिभास-मय महा-सामान्यरूप आत्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता, वह (पुरुष) प्रतिभासमय महासामान्यके द्वारा १व्याप्य (व्याप्य होने योग्य) जो प्रतिभास-मय अनन्त विशेष है उनकी निमित्तभूत सर्व द्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ? (नहीं कर सकेगा) इससे ऐसा फलित हुआ कि जो आत्मा को नहीं जानता वह सबको नहीं जानता ।
अब, इससे ऐसा निश्चित होता है कि सर्व के ज्ञान से आत्मा का ज्ञान और आत्मा के ज्ञान से सर्व का ज्ञान (होता है); और ऐसा होने से, आत्मा ज्ञानमयता के कारण स्व-संचेतक होने से, ज्ञाता और ज्ञेय का वस्तुरूप से अन्यत्व होने पर भी, प्रतिभास और प्रतिभास्यमानकर, अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण (ज्ञान और ज्ञेय, आत्मा की-ज्ञान की अवस्था में परस्पर मिश्रित-एकमेकरूप होने से) उन्हें भिन्न करना अत्यन्त अशक्य होने से मानो सब कुछ आत्मा में २निखात (प्रविष्ट) हो गया हो इसप्रकार प्रतिभासित (ज्ञात) होता है । (आत्मा ज्ञानमय होने से वह अपने को अनुभव करता है-जानता है, और अपने को जानने पर समस्त ज्ञेय ऐसे ज्ञात होते हैं-मानों वे ज्ञान में स्थित ही हों, क्योंकि ज्ञान की अवस्था में से ज्ञेयाकारों को भिन्न करना अशक्य है ।) यदि ऐसा न हो तो (यदि आत्मा सबको न जानता हो तो) ज्ञान के परिपूर्ण आत्म-संचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण एक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध न हो ।
१ज्ञान सामान्य व्यापक है, और ज्ञान विशेष-भेद व्याप्य हैं । उन ज्ञान-विशेषों के निमित्त ज्ञेयभूत सर्व द्रव्य और पर्यायें हैं
२निखात = खोदकर भीतर गहरा उतर गया हुवा; भीतर प्रविष्ट हुआ