GP:प्रवचनसार - गाथा 51 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब ऐसा निश्चित होता है कि युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व सिद्ध होता है (अर्थात् अक्रम से प्रवर्तमान ज्ञान ही सर्वगत हो सकता है ) :-
वास्तव में क्षायिक ज्ञान का, सर्वोत्कृष्टता का स्थानभूत परम माहात्म्य है; और जो ज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है वह ज्ञान- अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार *टकोत्कीर्ण-न्याय से स्थित होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है और समस्त व्यक्ति को प्राप्त कर लेने से जिसने स्वभाव-प्रकाशक क्षायिक-भाव प्रगट किया है ऐसा-त्रिकाल में सदा विषम रहनेवाले (असमान जातिरूप से परिणमित होनेवाले) और अनन्त प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त सम्पूर्ण सर्व पदार्थों के समूह को जानता हुआ, अक्रम से अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य प्रगट किया है ऐसा सर्वगत ही है ॥५१॥
*टकोत्कीर्ण न्याय = पत्थर में टांकी से उत्कीर्ण आकृति की भाँति