GP:प्रवचनसार - गाथा 53 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ज्ञान से अभिन्न सुख का स्वरूप विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता का (अर्थात् कौनसा ज्ञान तथा सुख हेय है और कौनसा उपादेय है वह) विचार करते हैं :-
यहाँ, (ज्ञान तथा सुख दो प्रकार का है-) एक ज्ञान तथा सुख मूर्त और १इन्द्रियज है; और दूसरा (ज्ञान तथा सुख) अमूर्त और अतीन्द्रिय है । उसमें जो अमूर्त और अतीन्द्रिय है वह प्रधान होने से उपादेय-रूप जानना । वहाँ, पहला ज्ञान तथा सुख मूर्तरूप ऐसी क्षायोपशमिक उपयोग-शक्तियों से उस-उस प्रकार की इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीन होने से
- २कादाचित्क,
- क्रमश: ३प्रवृत्त होने वाला,
- ४सप्रतिपक्ष और
- ५सहानिवृद्धि है
- नित्य,
- युगपत् प्रवर्तमान,
- नि:प्रतिपक्ष और
- हानिवृद्धि से रहित है,
१इन्द्रियज = इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होनेवाला; ऐन्द्रिय
२कादाचित्क = कदाचित्-कभी कभी होनेवाला; अनित्य
३मूर्तिक इन्द्रियज ज्ञान क्रम से प्रवृत्त होता है; युगपत् नहीं होता; तथा मूर्तिक इन्द्रियज सुख भी क्रमश: होता है, एक ही साथ सर्व इन्द्रियों के द्वारा या सर्व प्रकार से नहीं होता
४सप्रतिपक्ष = प्रतिपक्ष-विरोधी सहित (मूर्त-इन्द्रियज ज्ञान अपने प्रतिपक्ष अज्ञानसहित ही होता है, और मूर्त इन्द्रियज सुख उसके प्रतिपक्षभूत दु:ख सहित ही होता है)
५सहानिवृद्धि = हानिवृद्धि सहित
६चैतन्यानुविधायी = चैतन्य के अनुसार वर्तनेवाली; चैतन्य के अनुकूलरूप से, विरुद्धरूप से नहीं, वर्तने वाली