GP:प्रवचनसार - गाथा 54 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, अतीन्द्रिय-सुख का साधनभूत (कारणरूप) अतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है - इसप्रकार उसकी प्रशंसा करते हैं :-
जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय है, और जो १प्रच्छन्न है, उस सबको-जो कि स्व और पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे - अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देखता है । अमूर्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि, तथा
- द्रव्य में प्रच्छन्न काल इत्यादि (द्रव्य अपेक्षा से गुप्त ऐसे जो काल धर्मास्तिकाय वगैरह),
- क्षेत्र में प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश इत्यादि,
- काल में प्रच्छन्न २असाम्प्रतिक (अतीत-अनागत) पर्यायें तथा
- भाव-प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में ३अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं,
- चैतन्य-सामान्य के साथ अनादिसिद्ध सम्बन्ध-वाले एक ही ४'अक्ष' नामक आत्मा के प्रति जो नियत है (अर्थात् जो ज्ञान आत्मा के साथ ही लगा हुआ है- आत्मा के द्वारा सीधा प्रवृत्ति करता है),
- जो (इन्द्रियादिक) अन्य सामग्री को नहीं ढूँढता और
- जो अनन्त-शक्ति के सद्धाव के कारण अनन्तता को (बेहदता को) प्राप्त है,
१प्रच्छन्न = गुप्त; अन्तरित; ढका हुआ
२असांप्रतिक = अतात्कालिक; वर्तमानकालीन नहि ऐसा; अतीत-अनागत
३अन्तर्लीन = अन्दर लीन हुए; अन्तर्मग्न
४अक्ष = आत्मा का नाम 'अक्ष' भी है । (इन्द्रियज्ञान अक्ष = अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जानता है; अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान अक्ष अर्थात् आत्मा के द्वारा ही जानता है)
५ज्ञेयाकार ज्ञान को पार नहीं कर सकते-ज्ञान की हद से बाहर जा नहीं सकते, ज्ञान में जान ही लेते है