GP:प्रवचनसार - गाथा 54 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
(अब यहाँ अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता परक दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब पूर्वोक्त उपादेयभूत अतीन्द्रिय ज्ञान को विशेषरूप से व्यक्त करते हैं -
[जं] - जो अतीन्द्रिय ज्ञान रूप कर्ता है, अर्थात् इस वाक्य का कर्ता जो ज्ञान है । [पेच्छदो] - देखनेवाले पुरुष का वह ज्ञान जानता है । उसका वह ज्ञान क्या-क्या जानता है? [अमुत्तं] - अमूर्त अतीन्द्रिय, निरुपराग, सदानन्द एक सुख स्वभाववाले परमात्मद्रव्य प्रभृति सर्व अमूर्त द्रव्य-समूह को, [मुत्तेसु अर्दिदियं च] - मूर्त पुद्गल द्रव्यों में जो अतीन्द्रिय पुद्गल परमाणु आदि हैं उन्हें जानता है ।
- [पच्छण्णं] - कालाणु आदि द्रव्यरूप से प्रच्छन्न व्यवहित - अन्तरित-सूक्ष्म;
- अलोकाकाश के प्रदेशों से लेकर (अन्य द्रव्यों के प्रदेश) क्षेत्रप्रच्छन्न;
- निर्विकार परमानन्द एक सुखस्वाद रूप से परिणत परमात्मा के वर्तमान समयवर्ती परिणामों से लेकर जो सम्पूर्ण द्रव्यों के वर्तमान समयवर्ती परिणाम, वे कालरूप से प्रच्छन्न; तथा
- उन्हीं परमात्मा की सिद्ध-रूप शुद्ध व्यजंन-पर्याय और शेष द्रव्यों की जो यथासंभव व्यंजन पर्यायें, उनमें गर्भित प्रति समय होने वाली षटप्रकार हानि-वृद्धि रूप अर्थ पर्यायें भाव-प्रच्छन्न कही गई हैं ।
यहाँ शिष्य कहता है-ज्ञानप्रपंचाधिकार पहले ही पूर्ण हो गया है, इस सुख-प्रपंचाधिकार में सुख ही कहना चाहिये । आचार्य उसका निराकरण करते है- जो अतीन्द्रिय-ज्ञान पहले कहा गया है, वही अभेदनय से सुख है- ऐसा बताने के लिये अथवा वहाँ ज्ञान की मुख्यता होने से हेयोपादेय विचार नहीं किया है -यह बताने के लिये सुखप्रपंचाधिकार में भी ज्ञान का स्वरूप स्पष्ट करते हैं ।
इस प्रकार अतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है - इस कथन की मुख्यता से एक गाथा द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
(अब हेयभूत इन्द्रिय-ज्ञान की मुख्यता से चार गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)