GP:प्रवचनसार - गाथा 57 - अर्थ
From जैनकोष
[तानि अक्षाणि] वे इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] पर द्रव्य हैं [आत्मनः स्वभाव: इति] उन्हें आत्म-स्वभावरूप [न एव भणितानि] नहीं कहा है; [तै:] उनके द्वारा [उपलब्धं] ज्ञात [आत्मनः] आत्मा को [प्रत्यक्षं] प्रत्यक्ष [कथं भवति] कैसे हो सकता है ? ॥५७॥