GP:प्रवचनसार - गाथा 58 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, पुन: अन्य विधि से प्रत्यक्ष- परोक्ष का लक्षण कहते हैं -
[जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदं] - जो पर से ज्ञान होता है वह परोक्ष कहा गया है । किन विषयों सम्बन्धी ज्ञान को परोक्ष कहा गया है? [अट्ठेसु] –ज्ञेय पदार्थों सम्बन्धी पर से होनेवाले ज्ञान को परोक्ष कहा गया है । [जदि केवलेण णादं हवदि हि] - यदि केवल - बिना किसी की सहायता के स्पष्टरूप से ज्ञात होता है । किस कर्ता द्वारा ज्ञात होता है? जीव द्वारा ज्ञात होता है । तो [पच्चक्खं] - प्रत्यक्ष है ।
यहाँ विस्तार करते हैं – इन्द्रिय, मन, परोपदेश, प्रकाश आदि बाह्य कारणभूत और इसीप्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न पदार्थों को ग्रहण करने की शक्तिरूप उपलब्धि – लब्धि से और अन्तरंग कारणभूत पदार्थ-ज्ञान के अवधारणरूप संस्कार से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह पराधीन होने से परोक्ष कहा गया है । और यदि पूर्वोक्त सर्व परद्रव्यों से निरपेक्ष मात्र शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा से उत्पन्न होता है, तो वह ज्ञान अक्ष नामक आत्मा को लेकर (आत्मा के आश्रय से) उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष है - यह गाथा का अभिप्राय है ।
इसप्रकार हेयभूत इन्द्रिय-ज्ञान के कथन की मुख्यता से चार गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।