GP:प्रवचनसार - गाथा 59 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, इसी प्रत्यक्षज्ञान को पारमार्थिक सुखरूप बतलाते हैं :-
- स्वयं उत्पन्न होने से,
- १समंत होने से,
- अनन्त-पदार्थों में विस्तृत होने से,
- विमल होने से और
- अवग्रहादि रहित होने से,
- पर के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीनता के कारण
- ३असमंत होने से ४इतर द्वारों के आवरण के कारण
- मात्र कुछ पदार्थों में प्रवर्तमान होता हुआ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण,
- समल होने से असम्यक् अवबोध के कारण (--कर्ममल-युक्त होने से संशय-विमोह-विभ्रम सहित जानने के कारण), और
- अवग्रहादि सहित होने से क्रमश: होने वाले ५पदार्थ-ग्रहण के खेद के कारण
और यह प्रत्यक्ष ज्ञान तो अनाकुल है, क्योंकि-
- अनादि ज्ञान-सामान्यरूप स्वभाव पर महा विकास से व्याप्त होकर स्वत: ही रहने से स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिये आत्माधीन है, (और आत्माधीन होने से आकुलता नहीं होती);
- समस्त आत्म-प्रदेशों में परम ६समक्ष ज्ञानोपयोग रूप होकर, व्याप्त होनेसे समंत है, इसलिये अशेष द्वार खुले हुए हैं (और इसप्रकार कोई द्वार बन्द न होने से आकुलता नहीं होती);
- समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पी जाने से ७परम विविधता में व्याप्त होकर रहने से अनन्त पदार्थों में विस्तृत है, इसलिये सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव है (और इस प्रकार किसी पदार्थ को जानने की इच्छा न होने से आकुलता नहीं होती);
- सकल शक्ति को रोकनेवाला कर्मसामान्य (ज्ञान में से) निकल जाने से (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश के द्वारा प्रकाशमान (तेजस्वी) स्वभाव में व्याप्त होकर रहने से विमल है इसलिये सम्यक रूप से (बराबर) जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहितता से जानने के कारण आकुलता नहीं होती); तथा
- जिनने त्रिकाल का अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया है) ऐसे लोकालोक मे व्याप्त होकर रहने से अवग्रहादि रहित है इसलिये क्रमश: होने वाले पदार्थ ग्रहण के खेद का अभाव है ।
१समन्त = चारों ओर-सर्व भागों में वर्तमान; सर्व आत्म-प्रदेशों से जानता हुआ; समस्त; सम्पूर्ण, अखण्ड
२ऐकान्तिक = परिपूर्ण; अन्तिम, अकेला; सर्वथा
३परोक्ष ज्ञान खंडित है अर्थात् (वह अमुक प्रदेशों के द्वारा ही जानता है); जैसे-वर्ण आँख जितने प्रदेशों के द्वारा ही (इन्द्रियज्ञान से) ज्ञात होता है; अन्य द्वार बन्द हैं
४इतर = दूसरे; अन्य; उसके सिवाय के
५पदार्थग्रहण अर्थात् पदार्थ का बोध एक ही साथ न होने पर अवग्रह, ईहा इत्यादि क्रमपूर्वक होने से खेद होता है
६समक्ष = प्रत्यक्ष
७परमविविधता = समस्त पदार्थ समूह जो कि अनन्त विविधतामय है