GP:प्रवचनसार - गाथा 59 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
(अब चार गाथाओं में निबद्ध मुख्यतया अतीन्द्रिय सुख का प्रतिपादक चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)
अब, अभेद नय से पाँच विशेषणों से विशिष्ट केवलज्ञान ही सुख है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
[जादं] - उत्पन्न है । कर्तारूप कौन उत्पन्न है - इस वाक्य में कर्ता कौन है ? [णाणं] - केवलज्ञान उत्पन्न है । वह कैसे उत्पन्न हैं? [सयं] - स्वयं ही वह उत्पन्न है? । वह केवलज्ञान और किस विशेषता वाला है? [समत्तं] – परिपूर्ण है । किस स्वरूपवाला है? [अणंतत्थवित्थडं] – वह अनन्त पदार्थों में विस्तृत है । वह और कैसा है? [रहियं तु ओग्गहादिहिं] - और वह अवग्रहादि से रहित है । वह और कैसा है? [विमलं] - संशयादि मल से रहित है । इसप्रकार पांच विशेषणों सहित जो केवलज्ञान है [सुहं ति एगंतियं भणियं] - वह सुख कहा गया है । वह सुख कहा गया है? वह नियम से (सर्वथा) सुख कहा गया है ।
वह इसप्रकार -
- पर-निरपेक्ष होने से ज्ञानानन्द एक-स्वभावी निज-शुद्धात्मा को उपादान-कारण करके (निज शुद्धात्मारूप उपादान-कारण से) उत्पन्न होने से स्वयं उत्पन्न होता हुआ,
- सम्पूर्ण शुद्धात्म-प्रदेशों के आधारत्व से उत्पन्न होने के कारण समस्त अर्थात् सर्वज्ञान के अविभागी परिच्छेदों (प्रतिच्छेदों) से परिपूर्ण होता हुआ,
- सम्पूर्ण आवरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को जाननेवाला होने से विस्तृत होता हुआ और
- संशय-विमोह-विभ्रम से रहित होने से सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थों के ज्ञान के विषय में अत्यंत विशद होने से विमल होता हुआ
- क्रम-करण की बाधा से उत्पन्न खेद का अभाव होने से अवग्रहादि रहित होता हुआ