GP:प्रवचनसार - गाथा 63 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, परोक्षज्ञानवालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं :-
प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव के कारण परोक्ष ज्ञान का आश्रय लेने वाले इन प्राणियों को उसकी (परोक्ष ज्ञान की) सामग्री रूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही (स्वभाव से ही) मैत्री प्रवर्तती है । अब इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को, उदय-प्राप्त महा-मोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है, इसलिये तप्त लोहे के गोले की भाँति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है; उस दुःख के वेग को सहन न कर सकने से उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान (रोग में थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार के समान) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है । इसलिये इन्द्रियाँ व्याधि समान होने से और विषय व्याधि के प्रतिकार समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है ॥६३॥