GP:प्रवचनसार - गाथा 68 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, आत्मा का सुख-स्वभावत्व दृष्टान्त देकर दृढ़ करते हैं -
जैसे आकाश में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य
- स्वयमेव अत्यधिक प्रभा-समूह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित प्रकाश-युक्त होने से तेज है,
- कभी १उष्णतारूप परिणमित लोहे के गोले की भाँति सदा उष्णता-परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है, और
- देवगति-नामकर्म के धारावाहिक उदय के वशवर्ती स्वभाव से देव है;
- स्व-पर को प्रकाशित करने में समर्थ निर्वितथ (सच्ची) अनन्त शक्ति-युक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होनेसे ज्ञान है,
- आत्म-तृप्ति से उत्पन्न होने वाली जो २परिनिवृत्ति है; उसमें प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है, और
- जिन्हें आत्म-तत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसे बुध जनों के मनरूपी ३शिलास्तंभ में जिसकी अतिशय ४द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्म-स्वरूपवान होने से देव है ।
१जैसे लोहे का गोला कभी उष्णता-परिणाम से परिणमता है वैसे सूर्य सदा ही उष्पता-परिणाम से परिणमा हुआ है
२परिनिर्वृत्ति = मोक्ष; परिपूर्णता; अन्तिम सम्पूर्ण सुख (परिनिर्वृत्ति आत्म-तृप्ति से होती है अर्थात् आत्म-तृप्ति की पराकाष्ठा ही परिनिर्वृत्ति है)
३शिलास्तंभ = पत्थर का खंभा
४द्युति = दिव्यता; भव्यता, महिमा (गणधरदेवादि बुध जनों के मन में शुद्धात्म-स्वरूप की दिव्यता का स्तुतिगान उत्कीर्ण हो गया है)