GP:प्रवचनसार - गाथा 68 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि] - अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करके जैसे सूर्य स्वयं ही स्व-पर प्रकाशरूप से तेज है, उसीप्रकार स्वयं ही उष्ण है और वैसे ही अज्ञानी मनुष्यों का देवता है। कहाँ स्थित सूर्य इनरूप है? आकाश में स्थित सूर्य इनरूप है । [सिद्धो वा तहा णाणं सुहं च] - उसी प्रकार सिद्ध भगवान भी अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करके स्वभाव से ही स्व-पर प्रकाशक केवलज्ञान-मय और उसी प्रकार परम संतुष्टि स्वरूप अनाकुलता लक्षण सुखमय हैं । सिद्ध भगवान इनमय कहाँ है? [लोगे] - वे लोक में इनमय हैं । [तहा देवो] - और उसी प्रकार निज-शुद्धात्मा के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न सुन्दर आनन्द के तीव्र प्रवाह-रूप सुखामृत पान के पिपासु गणधर देव आदि परम-योगियों और देवेन्द्र आदि आसन्न-भव्य जीवों के मन में निरन्तर परम आराध्य और वैसे ही अनन्त ज्ञानादि गुणों के स्तवन से स्तुत्य जो पवित्र आत्म-स्वरूप - उस स्वभाव के कारण देव हैं ।
इससे ज्ञात होता है कि मुक्तात्माओं को विषयों से भी प्रयोजन नहीं है ।
इसप्रकार स्वभाव से ही सुख-स्वभावी होने से विषय भी मुक्तात्माओं को सुख के कारण नहीं - इस कथनरूप दो गाथायें पूर्ण हुईं ।