GP:प्रवचनसार - गाथा 69 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
(अब यहाँ द्वितीयाधिकार के अन्तर्गत प्रथम ज्ञानकण्डिका रूप प्रथम अन्तराधिकार का चार स्वतंत्र गाथा प्रतिपादक चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
वह इसप्रकार - अब यद्यपि पहले छह गाथाओं (६५ से ७०) द्वारा इन्द्रिय-सुख का स्वरूप कहा गया है, तथापि उसे ही और भी विस्तार से कहते हुये उसके साधक शुभोपयोग का प्रतिपादन करते हैं ।
अथवा दूसरी पातनिका - पीठिका में जिस शुभोपयोग के स्वरूप की सूचना दी थी उसका इस समय इन्द्रिय-सुख का साधक होने से इन्द्रिय-सुख के विशेष विचार के प्रसंग में विशेष विवरण करते हैं -
[देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु] - देवता, यति और गुरु की पूजा में तथा दान और सुशीलों में [उववासादिसु रत्तो] - और उसी प्रकार उपवासादि में आसक्त-लीन [अप्पा] - जीव [सुहोवओगप्पगो] - शुभोपयोगात्मक कहा गया है ।
वह इसप्रकार -
- निर्दोषी परमात्मा देव हैं,
- इन्द्रिय-जय से शुद्धात्म-स्वरूपलीनता में प्रयत्नशील यति हैं,
- स्वयं भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक तथा उस रत्नत्रय के अभिलाषी भव्यों को जिनदीक्षा देने वाले गुरु हैं
पूर्वोक्त देवता, यति, गुरुओं तथा उनके प्रतिबिम्बादि के प्रति यथासम्भव द्रव्य - भावादि पूजा और आहारादि चार प्रकार का दान तथा आचारादि ग्रंथों (चरणानुयोग के ग्रंथों) में कहे हुये शील व्रत और उसी प्रकार जिनगुणसम्पत्ति आदि विधि-विशेषरूप उपवासादि । जो इन शुभ अनुष्ठानों में लीन है और द्वेषरूप, विषयानुरागरूप अशुभ-अनुष्ठानों से विरक्त है, वह जीव शुभोपयोगी है - यह गाथा का अर्थ है ।