GP:प्रवचनसार - गाथा 72 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[णरणारयंतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं] - सहज अतीन्द्रिय, अमूर्त, सदानन्द एक लक्षण वास्तविक सुख को प्राप्त नहीं करते हुये मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, देव यदि समानरूप से पूर्वोक्त पारमार्थिक सुख से विलक्षण पंचेन्द्रियात्मक शरीर से उत्पन्न दुःख को ही निश्चयनय से भोगते हैं, [किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं] - व्यवहार से विशेष भेद होने पर भी निश्चय से शुद्धोपयोग से विलक्षण वह प्रसिद्ध शुभ-अशुभ उपयोग भिन्नता को कैसे प्राप्त हो सकता है? किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता - यह भाव है ।
इस प्रकार स्वतंत्र चार गाथाओं द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ ।