GP:प्रवचनसार - गाथा 76 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
- [सपरं] - पर-द्रव्य की अपेक्षा वाला होने से सपर-पराधीन है, और पारमार्थिक सुख परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण स्वाधीन है ।
- [बाधासहियं] - इन्द्रिय-सुख तीव्र क्षुधा (भूख), तृष्णा आदि अनेक बाधाओं से सहित होने के कारण विघ्न-सहित है । और निजात्म-सुख पूर्वोक्त सब बाधाओं से रहित होने के कारण अव्याबाध निर्विघ्न है ।
- [विच्छिण्णं] - इन्द्रिय-सुःख अपने विरोधी असाता के उदय सहित होने के कारण विच्छिन्न - अन्तर सहित - खण्डित है और अतीन्द्रिय सुख अपने विरोधी असाता के उदय का अभाव होने से अविच्छिन्न - अन्तर रहित - अखण्डित है ।
- [बंधकारणं] - इन्द्रिय-सुख देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए भोगों की इच्छा को लेकर (इच्छा से) होने वाले अनेक प्रकार के अपध्यानों (खोटे-ध्यानों) के वश भविष्य काल में नरकादि दु:खों को उत्पन्न करने वाले कर्म-बंध का उत्पादक होने से बंध का कारण है, और अतीन्द्रिय-सुख सम्पूर्ण अपध्यानों रहित होने के कारण बन्ध का कारण नहीं है ।
- [विसमं] - वह शम अर्थात् परमोपशम से रहित अथवा संतुष्टि कारक नहीं होने से या हानि-वृद्धि सहित होने के कारण विषम है और अतीन्द्रिय सुख परम संतुष्टि कारक तथा हानि-वृद्धि रहित है ।
इस प्रकार पुण्य जीव की तृष्णा के उत्पादक होने से दुःख के कारण हैं - इस कथनरूप से दूसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।