GP:प्रवचनसार - गाथा 79 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
(अब आप्त-आत्मा के स्वरूप परिज्ञान विषयक मूढ़ता निराकरण की प्रधानता वाला सात गाथाओं में निबद्ध द्वितीय ज्ञानकण्डिका नामक दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।)
[चत्ता पावारंभं] - पहले घर में निवास आदि रूप पापारम्भ को छोड़कर [समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि] - फिर अच्छी तरह स्थित होता है । अच्छी तरह कहाँ स्थित होता है? शुभचारित्र में स्थित होता है। [ण जहदि जदि मोहादि] - यदि राग-द्वेष-मोह को नहीं छोड़ता है, [ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं] - वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है ।
यहाँ विस्तार करते हैं - यदि कोई मोक्षार्थी, पहले परम-उपेक्षा लक्षण परम सामायिक की प्रतिज्ञा लेकर, बाद में विषय-सुख की साधक शुभोपयोग परिणति से मोहित चित्तवाला होता हुआ, निर्विकल्प समाधि स्वरूप पूर्वोक्त सामायिक का अभाव होने पर निर्मोह शुद्धात्म-तत्त्व से विरुद्ध मोहादि को नहीं छोड़ता है, तो जिन रूप सिद्ध-भगवान के समान निज-शुद्धात्मा को प्राप्त नही करता है -- यह गाथा का अर्थ है ।